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Introduction:


श्री हनुमान प्रागट्य

भगवान शिव, श्री हनुमानजी के आराध्य देव और श्रीराम की लीला के दर्शन हेतु और मुख्यतया उनकी श्रीराम के शुभ कार्यों में सहायता प्रदान हेतु अपने अंश ग्यारहवें रुद्र से शुभतिथी अनु शुभ मूर्हत में माता श्री अंजनी के गर्भ से श्री पवनपुत्र महावीर हनुमानजी के रुप में धरती पर उनका प्रागट्य हुआ । मूल ग्यारहवें रुद्र भगवान शिव के अंशज, भगवान श्री विष्णु (श्रीराम) की सहायता हेतु प्रगट हुए । श्री अंजनीमाता के पति श्री केसरी होने के कारण श्री हनुमानजी केसरी नंदन भी कहे जाते हैं ।

उसकी कथाएं

कथा (1)

माता श्री अंजनी और कपिराज श्री केसरी हनुमानजी को अतिशय प्रेम करते थे । श्री हनुमानजी को सुलाकर वो फल-फूल लेने गये थे इसी समय बाल हनुमान भूख एवं अपनी माता की अनुपस्थिति में भूख के कारण आक्रन्द करने लगे । इसी दौरान उनकी नजर क्षितिज पर पड़ी । सूर्योदय हो रहा था । बाल हनुमान को लगा की यह कोई लाल फल है । (तेज और पराक्रम के लिए कोई अवस्था नहीं होती । यहां पर तो श्री हनुमान जी के रुप में माताश्री अंजनी के गर्भ से प्रत्यक्ष शिवशंकर अपने ग्यारहवें रुद्र में लीला कर रहे थे और श्री पवनदेव ने उनके उड़ने की शक्ति भी प्रदान की थी ।
उस लाल फल को लेने के लिए हनुमानजी वायुवेग से आकाश में उड़ने लगे । उनको देखकर देव, दानव सभी विस्मयतापूर्वक कहने लगे कि बाल्यावस्था में एसे पराक्रम दिखाने वाला यौवनकाल में क्या नहीं करेगा ?
श्री वायुदेव ने अपने पुत्र को सूर्य के समीप जाते हुए देख चिन्ता होने लगी कहीं मेरे पुत्र को सूर्य किरणें जला न दें, वो जल न जाये । इसी कारण , श्री पवनदेव बर्फ की तरह शीतल होकर बहने लगे । वैसे भी इस अलौकिक बालक श्री हनुमान को अपनी ओर आता हुआ देखकर भगवान श्री सूर्यदेव को भी पहचानने में देर नहीं लगी की यह तो पवनपुत्र है, जो अपने पिता की तरह वायु वेग से मेरी ओर आ रहे हैं और साथ में श्री पवनदेव भी उनके पुत्र की रक्षा हेतु उड़ रहे हैं ।
सूर्यदेव ने अपना सौभाग्य समझा के स्वयं भगवान शिवशंकर, हनुमान के रुप में मुझे कृतार्थ करने आ रहे हैं । तो श्री हनुमानजी को सूर्यदेव की तरफ से आवकार मिलने पर बालक श्री हनुमानजी सूर्यदेव के रथ के साथ खेलने लगे । संयोग एसा था की उस दिन अमावस थी और संहिक्ष का पुत्र राहु सूर्यदेव को ग्रसने के लिए आया | राहु ने देखा कि श्री सूर्यदेव के रथ पर कोई बालक है । राहु उस बालक की परवा न कर सूर्य को ग्रसने के लिए आगे बढ़ा ही था की श्री हनुमानजी ने राहु को पकड़ लिया । । की मुठ्ठी में राहु हनुमानजी की छिटपिटाने लगा और अपने प्राण बचाकर भागकर इन्द्रदेव के पास पहुंचा और उनकी फरियाद कि के सूर्य मेरा जो ग्रास है उस अधिकार को आपने किसी और को क्यों दिया । एसा कहकर रुदन करने लगा । इन्द्रदेव चिंतित हुए की वो कौन होगा जो राहु जैसे पराक्रमी को मात कर
सके। श्री इन्द्रदेव स्वयं ऐरावत हाथी को लेकर घटनास्थल पर पहुंचे। वहां राहु को देखकर फिर से श्री हनुमानजी ने उसको पकड़ लिया । राहु फिर से उनको देखकर भागने लगा और इन्द्रदेव के पास पहुंचा । तभी राहु के पीछे श्री हनुमानजी उसके पीछे भागे वहां श्री हनुमानजी इन्द्रदेव के वाहन ऐरावत को देखकर उसको कोई खाद्यपदार्थ समझ कर ऐरावत पर तूट पडे । इन्द्रदेव भी बालक की ताकत को देखकर डरने लगे और तभी अपनी रक्षा हेतु हनुमानजी पर अपने हथियार वज्र से प्रहार किया जो हनुमानजी की दाढ़ी पर लगा (जिसको संस्कृत में हनु (दाढ़ी) कहा जाता है और उसी वजह से हनुमानजी का नाम "हनुमान" पड़ा ।) और हनुमानजी मूर्छित हुए । अपने प्राणप्रिय पुत्र को वज्र के आघात से छटपटाते हुए देखकर वायुदेव ने अपना वेग रोक दिया और अपने पुत्र को लेकर गुफा में चले गये एसा होने के कारण तीनो लोक में वायु का संसार बंध हो गया । समस्त प्राणीओ में
 श्वाससंचार बंद हो गया। सभी कर्म रुक गए, प्राण संकट में पड़ गये । इन्द्र आदि देवों, गन्धर्व, नाग यह सभी जीवनरक्षा हेतु ब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्माजी सभी को अपने साथ लेकर गिरीगुफा पहुंचे और वहां जाकर बालक श्री हनुमानजी को श्री पवनदेव के हाथ से लेकर अपनी गोद में लिए तब हनुमानजी की मूर्छा दूर हुई और वे फिर से खेलने-कूदने लगे । अपने पुत्र को जीवंत देखकर प्राणस्वरुप श्री पवनदेव पहले की तरह सरलता से बहने लगे और तीनो लोक फिर से जीवंत हो उठे ।
तभी श्री ब्रह्माजी ने श्री हनुमानजी को वरदान दिया कि इस बालक को कभी ब्रह्मशाप नहीं लगेगा, कभी भी उनका एक भी अंग शस्तर नहि होगा, ब्रह्माजीने अन्य देवताओं से भी कहा कि आप इस बालक को आप भी वरदान दो तब देवराज इन्द्रदेव ने हनुमानजी के गले में कमल की माला पहनाते हुए कहा की मेरे वज्रप्रहार के कारण इस बालक का हनु (दाढ़ी) तूट गई है इसी लिए यह कपिश्रेष्ठ का नाम आज से हनुमान रहेगा और इनका शरीर मेरा वज्र भी इस बालक को नुकसान पहुंचा सके एसा वज्र से कठोर होगा । श्री सूर्यदेव ने भी कहा कि इस बालक को में अपना तेज प्रदान करता हूं और मैं इसको शस्त्र - समर्थ मर्मज्ञ बनाता हुं । यह बालक एक अद्वितिय विद्वान वक्ता बनेगा । श्री वरुणदेव ने कहा की यह बालक जल से सदा सुरक्षित रहेगा। श्री यमदेव ने कहा कि यह बालक सदा निरोगी एवं मेरे दण्ड से मुक्त रहेगा । श्री कुबेर ने कहा कि युद्ध में विषादित नहीं होगा एवं राक्षसो से भी पराजित नहीं होगा । खुद भोलेनाथ शिवशंकर ने भी अभय वरदान प्रदान किया । श्री विश्वकर्माने भी कहा कि मेरे द्वारा निर्मित शस्त्र एवं वस्तुएं सभी से सुरक्षित रहेगा ।
श्री ब्रह्माजी ने पुनः वरदान दिया की पवनदेव, आपका ये पुत्र शत्रुओं के लिए भयंकर और मित्रो के लिए अभयदाता बनेगा और इच्छानुसार स्वरुप पा सकेगा । जहां जाना हो वहां जा सकेगा । उसको कोई पराजित नहीं कर सकता एसा असिम यशस्वी होगा और अदभुत कार्य करेगा ।
इस तरह बाल्यावस्था में श्री हनुमानजी चंचल और नटखट स्वभाव के थे । हाथी की शक्ति प्रमाण करने के लिए हाथी को पकड़कर उसको उठाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते । बड़े-बड़े वृक्षों को भी जडमूल से उखाडकर फेंकते एसी अतूट शक्ति उनमें थी । एसा कोई पर्वतीय शिखर नहीं था

कथा (2)
श्री हनुमानजी का सुग्रीव के साथ मिलन
श्री हनुमानजी का सुग्रीव के साथ मिलन भी पहले से ही निश्चित था । श्री सूर्यनारायण से शिक्षा प्राप्त करने के बाद श्री हनुमानने गुरुदक्षिणा के रुप में क्या प्रदान करे एसा पूछने पर श्री सूर्यनारायणजी ने उत्तर दिया था कि मुझे कुछ नहिं चाहिये लेकिन आप मुजे एक वचन दो कि मेरे अंश से उत्पन्न हुए वाली के छोटे भाई सुग्रीव की आप रक्षा करेंगे और उनका साथ देंगे । तब श्री हनुमानजीने विनम्रता से कहा कि मेरे रहते हुए कोई भी सुग्रीव का बाल भी बांका नहीं कर सकता और में उनके साथ रहकर उनकी रक्षा करूंगा यह मेरी प्रतिज्ञा है । एसे, श्री हनुमानजी गन्धमादत पर्वत पर से परत अपने माता-पिता के साथ वापस आये थे । ऋक्षर की वानरराज के दो पुत्र थे वाली एवं सुग्रीव । दोनो बालक को अपने पिता बहुत प्रेम करते थे। दोनों बुद्धिमान एवं सुंदर थे। दोनो के बीच में प्रेम था। सुग्रीव भी वाली को पिता समान सम्मान देते थे । जब पिता दिवंगत हुए तब मंत्रीयोंने वाली को श्रेष्ठ जानकर राज्यपद दीया । कुछ समय पश्चात दोनो भाई अलग हो गए और सुग्रीव को राज्य में से निकाल दिया । वो जब मुश्किल में होते है उसी अरसे में वानरराज केसरी श्री हनुमानजी को राजनीति का ज्ञान प्राप्त कराने हेतु पम्पापुर भेजते हैं और तब श्री हनुमानजी और सुग्रीव का मिलन होता है ।
कथा (3)
3) लंका दहन: 
जब रावण सीतामाता को लंका में ले गया था उसी दौरान सीतामाता रावण के रथ से मदद के लिए चीखें लगा रहे थे । तब जटायु गरुड ने उनको रावण से छुड़ाने की काफी कोशिश की परन्तु जटायु सीतामाता को रावण के हाथ से छुड़ा नहीं पाया और रावण के साथ लड़ाई में जटायु के पंख भी कट गये । जब श्री राम लक्ष्मण, सुग्रीव और श्री हनुमानजी सीतामाता की शोध में जंगल में भटक रहे थे तब उन्होंने जटायु के पंख देखकर चिंता व्यक्त की और घायल जटायु से मिलने पर जटायु ने उनको बताया कि रावण सीतामाता को लंका में ले गया है ।
श्री राम और सुग्रीव ने सीतामाता को अपना सन्देश देने के लिए श्री हनुमानजी को चुना । श्री हनुमानजी  को चुनने का हेतु भी विशिष्ट था । श्री हनुमानजी व्याकरण में चतुर एवं निष्णात थे कि रावण से सीतामाता को छोड़ने के लिए विशेषत: कह सकते थे और लंका तक का कठिन सफर लंका तक के विशाल समुद्र को लांघने की शक्ति और दूसरी अनेक अदभुत शक्तियों के कारण श्री हनुमानजी सक्षम थे। श्री राम और सुग्रीव उनकी सभी गुणो से अच्छी तरह से परिचीत थे ।
श्री हनुमानजी के लिए यह जिम्मेदारीपूर्ण कार्य था और अपने प्रभु श्री राम के लिए कुछ भी करने की तैयारी उनमें थी । उन्हों ने तो प्रभु श्री राम को स्वयं ही सीतामाता को वहां से ले आने की बिनती भी की । लेकिन प्रभु श्री राम भी इसी घटना हेतु सर्जन हुए थे इसीलिए श्री रामने श्री हनुमानजी को लंका सीतामाता को संदेशा भेजने हेतु अपनी पहचान स्वरुप अंगूठी देकर भेजा ।
श्री हनुमानजी इस कार्य के लिए निकल तो पडे लेकिन वो अभी बाल्यावस्था में मिले हुए ऋषि के शाप से प्रभावित थे । उनकी शक्तियां सीमित थी । जब समुद्र किनारे हनुमानजी चिंतीत अवस्था में सोच रहे थे कि यह कार्य वो कैसे सम्भव कर पायेंगे । तब वानरसेना के विद्वान श्री जाम्बुवनने श्री हनुमानजी को अपनी सभी शक्तियों को स्मरण करवाया और शाप के नियमानुसार अगर कोई उनकी शक्तियों का स्मरण करवाये तो शक्तियां वापस आ जायेगी और उनकी सभी शक्तियां वापस आ गयी । शक्ति प्राप्त होते ही महावीर श्री हनुमानजी ने विराट स्वरुप धारण किया और पूरी वानरसेना श्री हनुमानजी के इस स्वरुप को देखकर आश्चर्यचकित हो गई । वानरसेना ने श्री हनुमानजी को नमन किये और “जय श्री राम” और “जय श्री हनुमान" के नारे से वातावरण गुंज उठा ।

विशाल गर्जना और प्रभु श्री राम का नाम लेकर श्री हनुमानजी ने लंका की ओर प्रयाण किया । लंका तक के सफर में विशाल समुद्र था और साथ में श्री हनुमानजी को कई मुसीबतें भी आयी - राक्षस राक्षसियां, दानव श्री - हनुमानजी के कार्य में बाधा डालते



Stories In English
Story  (1)

His stories

fiction (1)

 Mother Shri Anjani and Kapiraj Shri Kesari loved Hanumanji very much.  After putting Shri Hanumanji to sleep, he had gone to collect fruits and flowers. At the same time child Hanuman started attacking because of hunger and hunger in the absence of his mother.  Meanwhile, his eyes fell on the horizon.  Sunrise was happening.  Bal Hanuman thought it was a red fruit.  (There is no stage for strength and might. Here, in the form of Shri Hanuman ji, Shiv Shankar, directly from the womb of Mata Shri Anjani, was playing in his eleventh Rudra and Shri Pavan Dev had also given him the power to fly.
To take that red fruit, Hanumanji started flying in the sky with the speed of air.  Seeing him, all the gods and demons started saying with astonishment that what the one who showed such prowess in childhood would not do in youth?
 Shri Vayudev started worrying seeing his son going near the sun, lest the sun rays burn my son, he may get burnt.  For this reason, Shri Pawandev started flowing as cool as ice.  Anyway, seeing this supernatural child Shri Hanuman coming towards him, it did not take long for Lord Shri Suryadev to recognize that he is the son of Pawan, who is coming towards me with the speed of wind like his father, and along with Shri Pawandev is also his son.  Flying to protect. 
Suryadev considered it his good fortune that Lord Shivshankar himself is coming in the form of Hanuman to bless me.  So when Shri Hanumanji received a call from the Sun God, the child Shri Hanumanji started playing with the Sun God's chariot.  The coincidence was such that it was a new moon day and Rahu, the son of Sanhiksha, came to devour the Sun God.  Rahu saw that there was a child on the chariot of Shri Suryadev.  Ignoring that child, Rahu had just moved ahead to consume the Sun when Shri Hanumanji caught Rahu.  ,  Rahu started thrashing Hanumanji in his fist and after saving his life reached Indradev and he pleaded that why did you give the right of the sun which is mine to someone else.  Saying this he started crying.  Lord Indra was worried that who would be the one who would be able to defeat the mighty like Rahu.Could  Shri Indradev himself reached the spot with Airavat elephant.  Seeing Rahu there, Shri Hanumanji caught hold of him again.  Rahu again started running after seeing him and reached Indradev.  That's why Shri Hanumanji ran after Rahu, there Shri Hanumanji seeing Indradev's vehicle Airavat, mistaking it for food, fell on Airavat.  Indradev also got scared seeing the power of the boy and then for his protection he attacked Hanumanji with his weapon Vajra which hit Hanumanji's beard (which is called Hanu (beard) in Sanskrit) and because of that Hanumanji was named "Hanuman".  .) And Hanumanji fainted.  Seeing his beloved son writhing in pain due to the thunderbolt, Vayudev stopped his speed and went to the cave with his son.  in all beings

Breathing stopped.  All work stopped, life was in trouble.  Indra etc. Devas, Gandharva, Nag all these went to Brahmaji for the protection of life.  Brahmaji took everyone along with him to Girigufa and went there and took the child Shri Hanumanji in his lap from the hands of Shri Pavandev, then Hanumanji lost his senselessness and started playing and jumping again.  Seeing his son alive, Shri Pavandev started flowing easily like before and all the three worlds came alive again.
 That's why Shri Brahmaji gave a boon to Shri Hanumanji that this child will never be cursed by Brahma, never even a single part of him will be shastra.  Wearing a lotus garland, I said that this child's hanu (beard) has been broken due to my thunderbolt, that's why this Kapishrestha's name will be Hanuman from today and his body will be as hard as thunderbolt so that even my thunderbolt can harm this boy.  Shri Suryadev also said that I give my glory to this child and I make him a weapon-capable penetrating person.  This child will become a unique scholar orator.  Shri Varundev said that this child will always be safe from water.  Shri Yamdev said that this child will always remain healthy and free from my punishment.  Shri Kuber said that he will not be upset in the war and will not be defeated even by the demons.  Bholenath Shivshankar himself also granted the boon of fearlessness.  Shri Vishwakarma also said that the weapons and things made by me will be safe from everyone.
 Shri Brahmaji again gave a boon that this son of yours, Pawandev, would become fierce for the enemies and a protector for the friends and would be able to get the desired form.  Will be able to go wherever he wants to go.  No one can defeat him, he will be infinitely successful and will do amazing things.
 In this way, Shri Hanumanji was playful and mischievous in his childhood.  To prove the power of the elephant, they used to demonstrate their power by holding the elephant and lifting it.  He had such inexhaustible power that he could uproot even big trees and throw them away.  there was no such mountain peak

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